कैमरे की निगरानी
बहुत दिनों बाद अपने दोस्त के शोरूम में जाना हुआ । शोरूम में दो तीन जगह सुंदर और बड़े अक्षरों में लिखा था - "यू आर अंडर सीसीटीवी सर्विलियेंस" यानी कि आप कैमरे की निगरानी में हैं । पहले ये बोर्ड नहीं थे । मेरी नज़र पूरे शोरूम में घूम गई, आदतन ! जो कैमरे हमें देख रहे हैं, उन्हें मैं भी तो देख लूँ एक बार । इसे और कुछ नहीं तो सहज जिज्ञासा ही कह लीजिए, या कारण ये भी हो सकता है कि हम ही वो पीढ़ी हैं जिसकी आँखों के सामने तकनीक ने इतनी तेज़ी से गति बदली है । हमारे बचपन में कहाँ थे ये सीसीटीवी कैमरे ! हर तरह के शोरूम से कितनी चीज़ें ग़ायब हो जाती थीं ! कपड़ों का ये शोरूम मेरे एक करीबी दोस्त का है - इसीलिए मुझे पता है । हालाँकि कोई ज़्यादा आर्थिक नुकसान तो उन लोगों को नहीं होता था लेकिन चोरी हो जाने की खुन्नस ज़रूर होती थी । उससे भी ज़्यादा कोफ़्त होती थी कि इतने लोगों की आँखों के सामने से कोई कैसे, शर्ट-साड़ी या कुछ और, उठा ले गया ! ख़ैर, बात सीसीटीवी की हो रही थी, जो कि कुछ साल पहले तक सार्वजनिक जीवन का आवश्यक हिस्सा नहीं हुआ करता था । वही कैमरे अब मेरे दोस्त के शोरूम में भी लगे हुए थे और लोगों की निगरानी कर रहे थे । निगरानी ! लोगों की या सामान की ? बहरहाल, कैमरे तो लगे हैं और वो लगातार मेरी फोटो भी खींच रहे हैं और हो सकता है कि कंट्रोल रूम में बैठा कोई मुझे स्क्रीन पर लाईव देख भी रहा है । फोटो खिंचवाने और लाईव देखे जाने की ललक आजकल किसे नहीं है ! हो सकता है कि मेरा दोस्त ही बैठा हो कंट्रोल रूम में ! इसीलिए सोचा कैमरा दिख जाए तो उसमें देख कर हाथ ही हिला दूँ । तभी कंधे पर हाथ पड़ा तो देखा पीछे मेरा वही दोस्त खड़ा है । मैंने अचरज से पूछा – "यार, कैमरे कहाँ लगा रखे हैं ? पूरे शोरूम में कहीं दिख ही नहीं रहे ?"
दोस्त ने बात घुमा दी और किसी से चाय लाने को कहा । मुझे लेकर शोरूम के पीछे अपने छोटे से चेंबर में चला आया । वहाँ पहुँच कर मुझे अहसास हुआ कि हमारी पिछली मुलाक़ात के बाद से या कहें कि इस शोरूम में मेरे पिछली बार आने के बाद से यहाँ काफ़ी कुछ बदला है - अच्छा ही बदलाव है - तरक्की झलक रही है । मैंने कहा – "कमाई तो अच्छी हो रही है?"
दोस्त मेरा मतलब समझ गया, बोला –"ये मॉल वालों ने कॉन्सेप्ट ही चेंज कर दिया है । मेरे दादा जी गद्दे पर बैठ कर दुकानदारी करते थे और हमसे अच्छा कमाते थे । कमाई कम हो फिर भी ये सब ताम-झाम करना पड़ता है । वरना जो थोड़े बहुत कस्टमर आते हैं वे भी न आएँ ! स्सालों के घर में टूटी खिड़की हो पर ग्रॉसरी शॉप भी एसी चाहिए ।"
बोल कर थोड़ा सहम गया । उसे पता था मेरे घर में एसी नहीं है । मैं बात को घुमा कर फिर कैमरे पर आ गया – "कंट्रोल रूम कहाँ है?"
उसने हैरानी से पूछा – "कंट्रोल रूम ?"
मैंने मज़ाक में कहा - "जहाँ बैठ कर शोरूम में आई सुंदर कस्टमरिनियों को घूरता है तू !"
कस्टमर का ऐसा लिंग भेद सुनकर वह थोड़ा मुस्कुराया मगर उसके चेहरे के भाव बता रहे थे कि वो अब भी मेरा अभिप्राय नहीं समझा । मैंने किसी सिनेमा डाईरेक्टर की तरह दोनों हाथों से कैमरे का फ़्रेम बनाया और बोला "सीसीटीवी!"
दोस्त समझ गया और उसके फूले हुए शरीर से हैरानी की हवा जैसे ही निकली, वह कुर्सी पर पीछे घिसक कर आराम से बैठ गया । थोड़ी देर मेरी आँखों में घूरते रहने के बाद बोला - "साल में दो-तीन चोरियाँ होती थीं, अब भी होती है । कौन इन छोटी चोरियों की रिपोर्ट करता है ! पुलिस आएगी तो हज़ार का नाश्ता कर के जाएगी । सामान तो मिलने से रहा ! पुलिस भी क्या खोजेगी ? कोई चार सौ की शर्ट ले गया है, कोई पाँच सौ - हज़ार की साड़ी ले गई है । साल भर में कभी कोई बच्चों के कच्छे चुरा कर ले गया तो .... " अचानक उसे याद आया - "दादा जी के टाईम में तो एक आदमी लुंगी चुराते पकड़ा गया था !"
मैंने आश्चर्य से पूछा - "लुंगी! तुम्हारे शोरूम में!"
उसने कहा -"दादाजी के टाईम तो रखते ही थे, पापा ने बंद कर दिया था लेकिन अब हनी सिंह और शाहरूख के चक्कर में हम भी रखते हैं ।"
"ख़रीद्दार?" - मैंने पूछा ।
वो मुस्कुराते हुए बोला -"बाज़ार में सामान होगा..... तो खरीद्दार भी होंगे!"
उसकी दार्शनिकता से मैं प्रभावित हुए बग़ैर नहीं रह पाया । दोस्त ने अपनी बात आगे बढ़ाई - "अब इन सब मामूली चोरियों के लिए लाख - दो लाख खर्च कौन करे? नौ की लकड़ी, नब्बे खर्चा !"
मैंने हैरानी से पूछा - "तो कैमरे क्यों लगवाए?"
उसका शांत सा उत्तर आया - "कहाँ लगवाए? सिर्फ़ बोर्ड लगा दिया है कि यू आर अंडर सर्विलियेंस । लोगों को आदत पड़ चुकी है ये बोर्ड देखने की । जो चोर हैं वे सावधान हो जाते हैं, बाकियों के मन में कैमरे के डर से चोरी का ख़याल भी नहीं आता । जब पाँच सौ रूपए के पाँच बोर्ड से काम चल जाता है तो पाँच कैमरा कोई क्यों खरीदे!"
मेरा ये दोस्त इतना स्मार्ट है मुझे मालूम न था ! उसकी स्मार्टनेस देखकर या सच्चाई जानकर, पता नहीं क्यों, मगर मेरे मुँह से आवाज़ ही नहीं निकली । आगे भी वही बोला - "और एक कमाल की बात पता है ? जब से ये बोर्ड लगवाए हैं, एक भी चोरी नहीं हुई!"
हमारी बात और आगे बढ़ती लेकिन तभी उसके दादाजी के आने की ख़बर मिली । वैसे तो दुकान पे नहीं आते थे लेकिन महीने में एक आध बार देखने आ जाते थे कि उनके गद्दे से लेकर मार्बल फ़्लोरिंग तक के सफ़र में और क्या क्या बदला है । उनके आते ही सब उन्हीं के पीछे लग गए । दो स्टाफ़ उन्हें सहारा देकर चेंबर में ले आए । ऊँची पीठ वाली कुर्सी मेरे दोस्त ने खाली कर दी । मैंने भी आगे बढ़कर पैर छुए । उन्होंने आँखे सिकोड़कर मुझे पहचाना, काँपते हाथों से आशीर्वाद दिया और बोले - "तुमको उस दिन ....दुर्गा मंदिर के पास देखा था..... मैं ...गाड़ी में जा रहा था ।"
मैं सिर्फ़ मुस्कुरा दिया । वे आगे बोले -"सोचा.... गाड़ी रुकवाकर ...तुम्हें बुलवाऊँ....." ।
मैंने सवालिया भंगिमा के साथ गर्दन को आगे की ओर बढ़ाया ।
"फिर देखा तुम ..... सिग्रेट पी रहे हो... सोचा... शर्मिंदा हो जाओगे ।" उनकी आँखों में बुड्ढों वाली वो ख़ास शरारत थी जिसके सहारे वे जवानों की अक्सर खिंचाई करते हैं । मैं क्या बोलता ! बस बालों में एक ख़ास अदा के साथ हाथ फेर कर रह गया । लेकिन वे अभी और शर्मिंदा करने पर तुले हुए थे –
"बीच बाज़ार में सिग्रेट... कितने लोग आते जाते हैं... मान लो तुम्हारे पापा ने देखा होता तो..कितना दुखी होते !" आक्रमण सीधा और प्रत्यक्ष था । दुकान के जो स्टाफ़ दादाजी को ढो कर यहाँ लाए थे, वे अब भी यहीं खड़े थे और मेरी तरफ़ ही देख रहे थे । मुझे लगा मुस्कुराहट दबाने की कोशिश कर रहे थे । मैं बेशर्म हो गया । पहले सोचा था मुकर जाऊँगा । लेकिन अब मेरे मुँह से निकला -"मैं तो रघुनंदन टी स्टॉल के पीछे खड़ा था... आपने कैसे देख लिया ?"
वे हँस कर इज़राईल हो गए... मुझे गाज़ा बना कर एक और रॉकेट दागा -"छिप कर पी रहे थे?"
मैं भी पल भर के लिए हमास हो गया -"हाँ... ताकि कोई देख न ले !"
उनके मुँह से मानों इस बार अमरीका बोला -"कोई देखे न देखे...." उन्होंने अपनी ऊँगली ऊपर की ओर दिखाई, "....वो ज़रूर देखता है... उससे बचकर कहाँ जाओगे?"
मुझे लगा वो ऊपर यूनाइटेड नेशन्स की ओर इशारा कर रहे थे । मेरी नज़र में आज तक ऐसा नहीं हुआ था कि मुझे महसूस हो कि ऊपर से सचमुच कोई देखता है । देखता है .. तो देखे ! यूएन को क्या दिख नहीं रहा कि इज़राइल क्या कर रहा है । मैंने अपने आप को रोका... हर बात को दुनिया भर में होने वाली घटनाओं से जोड़ कर देखने लगता हूँ । कम्पटीटिव एग्ज़ाम्स की तैयारी का नतीज़ा है ये शायद । सिग्रेट की लत भी वहीं से लगी है । राजकुमार हिरानी जैसे मँझे हुए हुए फ़िल्ममेकर ने एक गुंडे के किरदार को अगर सिग्रेट नहीं पिलाई तो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि रातों को जागने से उसके दिमाग में केमिकल लोचा करवाना था ! रातों को जाग - जाग कर पढ़ने से मुन्ना भाई वाला केमिकल लोचा न हो जाए, इसलिए दिमाग को जगाए रखना पड़ता है । जगा हुआ दिमाग ये भी कहता था कि धुँआ उड़ाने का जस्टीफ़िकेशन नहीं हो सकता । धत !....मैं आया था अपने दोस्त से कुछ पैसे उधार माँगने... लेकिन उसके बाद दादा जी ने दार्शनिकता और भगवद भक्ति का ऐस लेक्चर पिलाया कि मैं चाय आधी छोड़ कर बाहर निकल आया । मेरे सारे दोस्तों की तरह ये दोस्त भी समझदार था । दरवाज़े पर आकर पूछा -"पैसा-वैसा है न?"
देश का हर सत्ताधारी नेता पूरे आत्मविश्वास से कहता है कि अगले तीन-चार दशकों में भारत विश्व की सबसे शक्तिशाली अर्थ व्यवस्था वाला देश होगा । मैं भी उसी आत्मविशास के साथ बोला -"अगले महीने पापा को बोनस मिलने वाला है.. दे दूँगा ।"
दोस्त ने दाँत भींच कर अपनी पूरी ताक़त से मेरी पीठ पर झापड़ मारा और बोला -"तू बाहर रूक.. एक मिनट!" चेंबर से बाहर आकर लगा.. अब जल्दी से शोरूम के बाहर भी निकलूँ और एक सिग्रेट जलाऊँ । दोस्त उम्मीद से पहले लौटा । मेरी जेब में नोटों का छोटा सा बंडल ठूँस दिया । मैंने सचमुच कृतज्ञ होकर कहा -"इतना क्यों?" उसने मुझे बाहर की ओर धक्का दिया और बोला - "अब जा... शाम को तेरे मुहल्ले में आता हूँ । बहुत दिन हो गए... रघुनंदन के वहाँ की चाय नहीं पी!"
मैं बोला..."बाहर चल ना... एक एक सिग्रेट पीते हैं फिर चले आना !"
उसने बाहर दरवाज़े की ओर देखा और कहा -"अभी डैडी भी आते होंगे... देख लिया तो आज मेरा भी क्लास हो जाएगा...तेरी तरह ।"
मैंने पूछा नहीं पर उसने खुद ही मानों मेरा सवाल समझ लिया और जवाब भी दे दिया -"एक साथ तीनों जेनेरेशन...दादा जी ने ख़ास बुलाया है... चाचा जी भी आने वाले हैं ।"
मैं जानता था दोस्त के चाचा जी के हिस्से भी पुलिस चौकी के पास वाला बड़ा शोरूम आया था । दोस्त आगे बोला -"दादा जी बहुत गुस्सा हैं कि हर साल इतना टैक्स क्यों भरते हैं ये लोग? अकाउंटेंट को भी बुलवाया है । दो घंटे की क्लास होगी कि इन्कम टैक्स वगैरा कैसे बचाया जाए !"
मैं हिस्ट्री और पॉलीटिकल साइंस का स्टूडेंट, अकाऊंट कभी समझ में नहीं आया, फिर भी बोला -"टैक्स तो जितना बनेगा, उतना ही ना देना पड़ेगा ?"
वो खी-खी कर हँसा..."तू नहीं समझेगा.. सब होता है...सब अकाउंट्स का खेल है ! पूरा का पूरा टैक्स भर दें तो फिर से वही ...गद्दी पर बैठ कर लुंगी बेचना पड़ेगा । चल शाम को मिलता हूँ ।"
वो अंदर चला गया । मैं दो पल वहीं खड़ा रहा । दोस्त की हँसी सुनकर दो एक सेल्समैन इधर ही देख रहे थे । मैंने देखा तो मुस्कुरा दिए । सेल्समैन के सर पर के ऊपर लगे बोर्ड पर फिर नज़र पड़ी मेरी । "आप कैमरे की निगरानी में हैं ।"
मैं बाहर चला आया । जेब में पैसे थे...मुझे खुश होना चाहिए था...लेकिन थोड़ी देर बाद मेरी ऊँगलियों के बीच सिग्रेट फँसी हुई थी और दिमाग में कुछ विचार ट्रेन की स्पीड से भी ज़्यादा स्पीड से दौड़े जा रहे थे । निकोटीन ने स्नायु तंत्र को सक्रिय कर दिया था । कहीं कोई कैमरा नहीं है । सिर्फ़ बोर्ड लगे हैं । "आप कैमरे की निगरानी में हैं ।" और चोर सचेत हो जाते हैं ! पकड़े जाने का डर...सज़ा का भय ! कैमरा नहीं है....कहीं कोई लाईव नहीं देख रहा... कहीं कोई रिकॉर्डिंग नहीं हो रही...बस कैमरे का डर ! बस कैमरे का डर ?
सामने दुर्गा मंदिर की घंटियाँ बज रही थीं । "अरे मैं इतनी जल्दी मंदिर तक चला आया ?" मंदिर के सामने लाईन लगी थी । मैं प्रणाम करने के इरादे से रुक गया । जहाँ जूते उतारने थे...वहाँ भी दीवार पर बोर्ड लगा था -"जूते-चप्पल रखकर टोकन अवश्य लें । अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करें ।"
मैंने जू्ते खोले और उसकी फटी हुई सोल को छिपाते हुए काउंटर वाले को दिए... टोकन लेकर मुख्य दरवाज़े पर आया... वहाँ भी बोर्ड लगा था -"ये मंदिर कैमरे की निगरानी में हैं ।" मैं दो पल ठहरा.... उल्टे पाँव लौटा और जूता - काऊंटर पर लौटकर टोकन दिखलाया । बूढ़े काउंटर वाले ने अचरज से पूछा -"हो गया? इतनी जल्दी?" मैंने जूते पैर में घुसेड़े और बोला -"हो गया !" मंदिर से दाहिने हाथ पर ही रघुनंदन की चाय-सिग्रेट की दुकान थी ! मैं बाँयी तरफ़ मुड़ गया !
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© All rights of this work is reserved with the writer, Rakesh Kumar Tripathi.
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