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तन से तन को खूब जिया

तन से तन को खूब जिया
मन से मन को जीना अब बाकी है,
जो मुझको पिलाएगा अँजुरी भर भर
यहाँ कहाँ वह साकी है !

तन को गढ़ा सहेज लिया
सहेजना, गढ़ना मन का बाकी है,
जो गढ़ ले कीचड़ सी माटी को
वो किस कुम्हार की चाकी है !

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