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Muskaan

Muskaan - a story by Rakesh Kumar Tripathi



बड़ी ख़ूबसूरत थी वह ! बड़ी-बड़ी आँखें थीं उसकी । बरबस अपनी ओर देखने को मजबूर करती आँखें । मैं उस स्टोर में घुसा ही था कि सबसे पहले मुझे उसकी आँखें दिखाई पड़ीं । थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि उसके होंठ मुस्कुरा रहे थे । आँखें मेरी ओर ही टिकी थीं । शायद मुस्कुराने की वजह से ही उसकी आँखें भी इतनी मोहक लग रही थीं । मैं उन आँखों को देखते हुए ही उस शोरूम में दाखिल हुआ और आगे बढ़ा । आगे बढ़ने के लिए लाजिमी था कि उन आँखों की ओर देखना छोड़ दूँ । लेकिन फिर देखता किस ओर ? इस स्टोर के अंदर तो मैं बस टाइम पास करने के लिए आया था । बाहर बड़ी गर्मी थी । सिर्फ़ गर्मी ही नहीं बल्कि अच्छी ख़ासी धूप थी । मेरी बीवी ने कहा था भारत माता चौराहे पर वाली रेड लाईट के पास खड़ा रहने के लिए । पता नहीं मैं पहले आ गया था या उसे आने में देर हो रही थी ! फ़ोन किया तो जल्दी में जवाब दिया रास्ते में हूँ । अब इससे ज़्यादा कुछ पूछना अक्लमंदी का काम नहीं था । मुझे पता था वह कहीं भी हो सकती थी - आधे घंटे से लेकर पाँच मिनट की दूरी पर । शादी के कुछ सालों के बाद कुछ सवाल और कुछ सवालों के जवाब बेमानी हो जाते हैं । यह भी उन्हीं चुनींदा सवालों-जवाबों में से एक था । मैंने थोड़ी देर और लाल बत्ती के पास इंतज़ार किया । थोड़ी सी इधर-उधर चहलकदमी की । पास से एक महिला छतरी लगाए गुज़री तो अहसास हुआ कि कितनी तेज़ धूप है ! इधर उधर नज़र दौड़ाई तो यह स्टोर दिख गया । पहले तो यहाँ एक सिनेमा हॉल हुआ करता था । मैं इस तरफ़ आया भी तो बहुत दिनों के बाद । वैसे पूरे शहर में पुरानी इमारतों के टूटने और उनकी जगह नई दुकानों-बाज़ारों का बनना कोई नई बात नहीं है । मुझे भी कोई बहुत ज़्यादा हैरत नहीं हुई । नया स्टोर था - डिपार्टमेंटल स्टोर ! सिनेमा हॉल का लगभग नीचे का पूरा हिस्सा उसमें समा गया था । ऊपर शायद सात-आठ मंज़िलें और बनी थीं, मैंने ग़ौर नहीं किया । तेज़ धूप से बचने के चक्कर में सीधा अंदर घुस आया और अंदर आते ही उन आँखों से टकरा गया ।

आपके साथ-साथ कहीं मेरी पत्नी भी यह कहानी पढ़ रही होगी तो शर्तिया मुझे लम्पट और चरित्रहीन समझने लगेगी । हालांकि थोड़ी देर लड़ने, झगड़ने, ताने देने के बाद पूछेगी भी कि क्या उसकी आँखें मेरी आँखों से भी ज़्यादा सुंदर थी और यह भी कहेगी कि तुम मर्द लोग शादी के कुछ साल बाद बदल क्यों हो जाते हो ! पत्नी जब मिलेगी तो उसकी अदालत में भी अपनी दलीलें रखूँगा । अभी मेरा कर्तव्य बनता है कि आपकी ग़लतफ़हमी दूर कर दूँ । आप मेरी कहानी के वर्तमान पाठक हैं । उन मोहक आँखों के आकर्षण का मेरे चरित्र के साथ कोई सीधा रिश्ता नहीं है । आप चाहें तो दूर का रिश्ता खोज-खाज कर भले निकाल लें । कैसे... वह बाद में बताता हूँ ।

मैं अक्सर दो-एक बार मिले हुए लोगों को भूल जाता हूँ, मतलब कि उनकी सूरतें तो जानी-पहचानी सी लगती हैं लेकिन ऐसा भी हुआ है कि  नाम और संदर्भ को याद करने के चक्कर में मैं उधेड़बुन में खड़ा रहा हूँ और कुछ अजनबी बड़ी बेतकल्लुफ़ी से मुझसे मिलकर, कुछेक मेरे पैकेट से सिग्रेट हथिया कर मेरी पीठ पर धौल जमा कर भी चलते बने हैं और मैं ऊँगलियों में फँसी फ़िल्टर को दबाए सोचता खड़ा रह जाता हूँ कि बंदा था कौन ! कहते हैं बढ़ती हुई उम्र के साथ मस्तिष्क की अंदरूनी कोशिकाओं का भी क्षय होने लगता है । लेकिन अभी कौन सी उम्र हो रही है मेरी ! वैसे शहर की बदलती हुई आबोहवा ने और हवा में घुलते ज़हर ने उम्र पर अपना असर दिखाया तो ज़रूर है । उन मोहक आँखों को देख कर आगे बढ़ा तो शुरूआती पलों में यही ख़याल आ-जा रहा था कि इसे कहाँ देखा है, कहाँ मिला हूँ ! वह मुझे देखकर मुस्कुरा रही थी । किसी परिचित की सी आत्मीयता से । आज से दस-पाँच साल पहले तक तो अच्छा ही लगता था जब कोई एक टक देखता था या हौले से मुस्कुरा देता था । दिल में उमंगों की हिलोरें उठने लगती थी । अब हिलोर तो नहीं उठती लेकिन झूठ क्या बोलूँ - दिल को छूकर एक ठंडी बयार ज़रूर एक पल में गुज़र जाती है । दिल मचलता नहीं, बहलता ज़रूर है । लेकिन यहाँ ना बहला, ना मचला, उलझ सा गया । 

मैंने शेल्फ़ से टोमैटो सॉस की एक बॉटल उठाई और बड़े ग़ौर से उस पर छपे इंग्रेटिएट्स की लिस्ट को पढ़ने लगा । लेकिन मेरा ध्यान किन्हीं और उपादानों की ओर था । कनखियों से उस ओर ताका तो उससे नज़रें मिल गईं । उसके चेहरे पर मुस्कान अब भी थी । मैंने सॉस की बोतल को रख दिया और आगे बढ़ गया । सोचा इस शेल्फ़ के छोर पर जाकर कोई सामान उठाकर पूरा घूमकर उसे देखूँगा और याद करने की कोशिश करूँगा । कहीं यह हमारी नई पड़ोसन तो नहीं ! या फिर माथुर साब की साली जो पिछली गर्मियों में पूरे एक महीने सामने वाली बाल्कनी में दिख जाया करती थी ।  

शेल्फ़ के आख़िरी छोर पर डायपर्स के पैकेट रखे हुए थे । मैं हिचकिचाया - फिर सोचा मेरी उम्र का डायपर से क्या रिश्ता ! कई लोग देर से शादी नहीं करते ? तो क्या उनके बच्चे अभी छोटे नहीं होंगे ? या फिर तर्क का एक और पहलू दिमाग में आया कि क्या मैं किसी और के बच्चे के लिए नहीं खरीद सकता ? छोटे भाई का बच्चा ? किसी दोस्त का बच्चा ? सोचते-सोचते डायपर मेरे हाथ में था । मैंने उस पैकेट को देखते हुए दूर खड़ी उस लड़की की ओर देखा । बीच में खरीदारी करते हुए कुछ और लोग भी थे । मैंने थोड़ा सा एंगल बदल कर देखने की कोशिश की लेकिन वह नहीं दिखी । मैंने डायपर को नीचे रखा और परली तरफ़ के शेल्फ़ों के बीच से होकर आगे बढ़ा । 

स्टोर में सब कुछ था । सब कुछ मतलब सब कुछ । ब्रांड भले आपकी पसंद का ना मिले लेकिन वह चीज़ ज़रूर मिल जाएगी । मेरी कॉलोनी के पास भी दो स्टोर्स हैं लेकिन इतने बड़े नहीं । ऐसा नहीं है कि पहले किसी डिपार्टमेन्टल स्टोर में नहीं गया । कोलकाता, मुम्बई जैसे महानगरों की दुकानें भी देखी हैं । लेकिन ऐसा पहले कभी महसूस नहीं किया । जब से अंदर आया हूँ एक स्फ़ूर्ति सी महसूस कर रहा हूँ । एसी की ठंडक भी एकदम सही । लगता है फरवरी महीने की शुरुआत हो, सूरज बादलों के पीछे छिपा हो और मैं अपने गाँव के घर की छत पर घूम रहा हूँ । जैसे टहलते-टहलते उस छत की रेलिंग थाम कर खड़ा होऊँ ठीक वैसे ही मिल्क पाउडर के पैकेटों वाली शेल्फ़ को थाम रखा था मैंने और मेरा पूरा वज़न भी उस पर था । एक हाथ मेरे कंधे पर पड़ा - "सर आर यू ओके?" मैंने देखा सामने एक लड़का खड़ा था । मैंने सर हिलाते हुए उसे आश्वस्त किया तो उसने उस शेल्फ़ की ओर देखा । मैंने उसकी नज़रों का इशारा समझा और शेल्फ़ पर से अपने सत्तर किलो हटा लिए । 
लड़के ने शेल्फ़ को थोड़ा सा व्यवस्थित किया - "सर कोई लिस्ट हो तो मैं आपकी मदद कर सकता हूँ !"
मैं उसकी बात नहीं समझा ।
- अभी सारे डिस्प्ले डैंगलर नहीं लग पाए हैं । आप बताइए क्या चाहिए । ग्रोसरी या फिर किड्स आयटम्स ?
अब मैं समझा कि यह दुकान का स्टाफ़ है और ख़रीदारी में मेरी मदद करना चाह रहा है ।
- नहीं मैं खुद देख लूँगा । 
- आर यू श्योर ? 
- यस !
- वो बैग्स उधर रखे हुए हैं । आप चाहें तो ट्रॉली भी ले सकते हैं । ला दूँ ?
- नहीं, नहीं चाहिए, उतना सामान नहीं होगा ।
- ओके सर !
वह घूम कर वापस चला गया । मुझे लगा एसी की ठंडक के लालच में ज़्यादा देर यहाँ रुका नहीं जा सकता । मैं अनजाने में ही एक तरफ़ चल दिया । थोड़ी देर और घूम लूँ फिर निकल जाऊँगा । निकलना तो है ही । सोचा कुछ खरीद ही क्यों ना लूँ ? लेकिन एक तो मैं बेकार की या बिना ज़रूरत की खरीदारी करता भी नहीं और दूसरे यहाँ से निकल कर मुझे अपनी पत्नी से भी मिलना था । उसके सवालों का जवाब कौन देगा ! क्यों लिया... यहाँ से क्यों लिया ... यहीं से क्यों लिया ... अभी क्या ज़रूरत थी !

कुछ लोग कहते हैं सब कुछ ईश्वर ने पहले से तय करके रखा हुआ है । कहाँ शहर के पूर्वी छोर पर मेरा दफ़्तर और यह दुकान पश्चिमी इलाके में ! सुबह ही बॉस ने कहा था यहाँ के एक क्लाइंट के साथ लंच पर मिल लूँ । अभी लंच पर ही था कि पत्नी का फ़ोन आ गया । क्लाइंट के सामने सच कहना ही पड़ा कि कहाँ हूँ और तुरंत पत्नी जी का आदेश आ गया कि लंच के बाद थोड़ी देर रुकना मैं आ रही हूँ । यह भी नहीं सुना कि मुझे वापिस ऑफ़िस जाकर बॉस के साथ भी बैठना है । थोड़ी देर बाद फ़ोन पर मैसेज आया कि उसे अपनी सहेली अनुपमा के घर जाना है । अनुपमा का घर इसी इलाके में है । अब अगर उसने कहा मुझे भी साथ चलने के लिए तो झगड़ा होगा ही होगा । अरे तुम्हारी सहेली है तुम जाओ, मैं अपना ऑफ़िस छोड़कर तुम्हारी सहेली के घर क्यों जाऊँ । लेकिन संयोग तो देखिए, आज ही इस इलाक़े में  मेरी मीटिंग, आज ही उसका अपनी सहेली से मिलने का प्रोग्राम !

ईश्वर का पहले से तय किया हुआ एक और कारनामा हो गया । मैं दुकान से बाहर निकलने का बहाना खोज ही रहा था कि तभी मेरे फोन की घंटी बजी । 
- कहाँ हो तुम? 
- तुम पहुँच गई?
- हाँ, तुम कहाँ हो ?
मैंने ’बस आया-बस आया’ कहा, फ़ोन को वापस जेब में रखा और बाहर की ओर लपका । जाते-जाते अनायास इधर-उधर नज़र चली गई । उस लड़की की तलाश में जो मुझे देख कर मुस्कुरा रही थी । फिर इधर आना हो ना हो । एक आख़िरी बार तो उसे देख लूँ । यक़ीन मानिए अभी भी कोई चारित्रिक दुर्बलता नहीं थी । हालाँकि उस मोहिनी मुस्कान का और मेरे चरित्र के बीच का दूर वाला रिश्ता, जिसके बारे में मैंने बतलाने का वादा किया था, वह यह है कि ऐसी मुस्कानें, ऐसी चितवन एक पुरुष के चरित्र को दुर्बल करे ना करे, उसके आत्मविश्वास को ज़रूर बलवती करती हैं । और सिर्फ़ पुरुष ही क्यों, यह बात तो स्त्रियों पर भी लागू होती हैं । यदि लंपटता ना हो तो पुरुष की प्रशंसा भरी निगाहों से किस स्त्री को आपत्ति होगी । किसी को अपनी तरफ़ देखता देख कर, चेहरे पर बाल आए हों या नहीं, मगर औरतें उन्हें हटाती ज़रूर हैं । 
तो.. और ख़ास किसी कारण से नहीं... सिर्फ़ अपने आत्मविश्वास को ठीक-ठाक रखने के लिए मैंने चलते-चलते ही एक बार चारों ओर निगाह फेरी कि वह दिख जाए । वह कहीं नहीं थी । उसकी मुस्कान भी नहीं थी ।

मैंने फिर से सामने देखा और चलना शुरू किया । अचानक वह सामने दिखी - थोड़ी सी दूरी पर । उसने भी मेरी ओर देखा, ऊपर से नीचे तक । लेकिन इस बार उसकी आँखों में ना वो चमक थी, ना होंठों पर मुस्कुराहट । मेरा आत्मविश्वास और मैं .... दोनों लड़खड़ा गए । फ़र्श भी तो बहुत साफ़ और  चिकना था । पैर पीछे की ओर फ़िसला, मैंने संतुलन बनाए रखने के लिए सामने वाली शेल्फ़ थाम ली । शेल्फ़ पर मसाले के पैकेट सजे हुए थे, कुछ उछलकर नीचे बिखर गए । छोटे-छोटे पैकेट थे, फटे नहीं । लुढ़कते - बचते भी यह विचार कौंधा कि कोई नुकसान नहीं हुआ । लेकिन तभी ज़ोर की आवाज़ हुई और शेल्फ़ पर रखे गत्ते के दो बक्से भी नीचे गिरे । सौभाग्य से ये भी खाली थे । लेकिन वह लड़का, जिसने खरीदारी करने में मदद की पेशकश की थी वह दौड़ा हुआ आया और मुझे सहारा देने से पहले दोनों बक्सों को देखा । मैं तो वैसे भी तब तक संभल कर अपने पैरों पर खड़ा हो  चुका था । दोनों बक्सों को वहीं साईड में रखकर वह आगे बढ़ा और उस लड़की के पास खड़ा हो गया । मैं भी चेहेरे पर खिसियानी हँसी लिए आगे बढ़ा । अब तो सीधा बाहर ही जाना था । मैंने दोनों को ग़ौर से देखा । दोनों के कपड़े एक जैसे थे । नीचे नीली जीन्स और नीली स्कर्ट और ऊपर लाल कॉलर वाली कत्थई टीशर्ट । जब मैं दोनों के सामने से गुज़र रहा था तो लड़के ने लड़की से पूछा - क्या हुआ ?

लड़की के चेहरे से मुस्कान चार किलोमीटर दूर जा चुकी थी । मैं भी दोनों को पीछे छोड़कर मुख्य दरवाज़े की ओर बढ़ रहा था । पीछे से लड़की की आवाज़ सुनाई दी - कुछ नहीं ! लेना-वेना कुछ होता नहीं ! आ जाते हैं एसी की हवा खाने ।

मैं मुख्य दरवाज़े से निकलकर बाहर फुटपाथ पर आ गया था । खुले आसमान के नीचे, चारों तरफ़ क्रूर तपती हुई धूप  । सामने सड़क पर पूरी रफ़्तार से गाड़ियाँ आ-जा रही थीं । सिग्नल बदला, मैं रास्ता पार कर लाल-बत्ती के पास आ गया । देखा पत्नी पास के स्टॉल के सामने खड़ी कोल्ड ड्रिंक पी रही थी ।
- तुम लोगे? उसने बोतल दिखाते हुए पूछा ।
मैंने अपनी ठुड्डी से सड़क के समानांतर दो बार हवा में अदृश्य लकीर खींची । उसका पीना लगभग ख़त्म हो चुका था । मैंने दुकानदार को पैसे दिए । पत्नी ने बोतल के नीचे बचे तरल को गोल-गोल घुमाते हुए कहा - "अनुपमा की बहन आई हुई है । याद है जो हमारी शादी में भी आई थी ? छ महीने का बेटा भी है अब तो । तो सोचा मिल आऊँ । अब वो अकेली होती तो ऐसे ही चली जाती । बच्चा है ना... तो उसे खाली हाथ गोद में लेना अच्छा नहीं लगेगा । उसके लिए गिफ़्ट लेना है कुछ । चलो । मुझे तो समझ में ही नहीं आ रहा क्या लूँ ।"
दुकान से आगे बढ़कर हम फिर लालबत्ती के सामने आ गए ।
मैंने पूछा - कहाँ से लेना है ?
- अरे क्या लेना है... यही नहीं समझ में आ रहा तो कहाँ से लेना है कैसे बताऊँ ।
अचानक उसकी नज़र भी सामने वाले डिपार्टमेंटल स्टोर पर पड़ी ।
- अरे वो देखो... अनुपमा ने बताया था कि यहाँ भी यह खुल गया है । मैं तो भूल ही गई थी । यहाँ कुछ ना कुछ ज़रूर मिल जाएगा । आओ ।
लेकिन सामने रास्ते पर गाड़ियाँ जा रही थी । वह रूक गई । मुझे अजीब सा लग रहा था । फिर से वहाँ ? लेकिन फिर ख्याल आया कि इस बार तो खरीदना है । मैंने पत्नी का हाथ पकड़ कर कहा ।
- एक काम करो । शादी के बाद पहली बार मिलोगी ना उससे ? उसके लिए भी कुछ ले लेना । साड़ी-वाड़ी !
पत्नी ने सुखद आश्चर्य से मुझे देखा ।
- कमाल है ! कभी मेरे लिए तो ऐसे नहीं आता दिमाग में ।
- तुम भी ले लेना एक ।
- बजट ?
मेरे दिमाग में अंदर ही अंदर एक प्रतिशोध पैदा हो रहा था । उस प्रतिशोध को पूरा करने का हथियार था मेरे पास ।
- नो बजट !
मेरे पर्स में क्रेडिट और डेबिट दोनों ही कार्ड थे । अंदर कहीं एक अंहकार भी पंख फैला रहा था । संभव होता तो अपने दफ़्तर और घर दोनों जगह ले जाकर उसे एसी दिखा देता । अब एक दूसरे तरह का आत्मविश्वास अहंकार की शक्ल ले रहा था । मेरे अनजाने ही मेरा मन अब उस मुस्कान का कायल नहीं था बल्कि उस चेहरे पर शर्मिंदगी वाला भाव देखना चाह रहा था । या नहीं भी दिखाई देता वह भाव तो भी कैसे भी करके बिल की राशि तो कम से कम बता ही देता ।
सामने लोग रास्ता पार कर रहे थे । पत्नी ने हाथ पकड़ कर खींचा - चलो !
कुछ ही देर में मैं फिर से उसी स्टोर के अंदर था । 
सामने खड़ी थी वही मुस्कान धारण किए हुए लड़की । पता नहीं मुझे देख रही थी या मेरी पत्नी को या दोनों को । मैंने उसकी आँखों में पढ़ना चाहा कि थोड़ी देर पहले उसने जो कहा था वह उसे याद भी है या नहीं ! मुझे उस मोहिनी मुस्कान के अलावा कुछ भी नहीं दिखा ।
मेरी पत्नी ने आगे बढ़कर उससे साड़ी काउंटर के बारे में पूछा । वह रास्ते दिखाते हुए आगे बढ़ी और एक मोड़ मुड़कर एक ओर इशारा कर दिया । सामने लंबा-चौड़ा काउंटर था और उसके सामने हैंगर से लटकी हुईं साड़ियाँ । उसके भी सामने एक और लड़की --- मुस्कुराती हुई । बड़ी जानी-पहचानी मुस्कान । हम आगे बढ़े... काउंटर के पीछे से एक और चेहरा बाहर निकला --- मुस्कुराता हुआ ।

आधे घंटे बाद पाँच हज़ार सात सौ के पैकेट हाथों में थामे हम बाहर की ओर आ रहे थे । मुख्य दरवाज़े पर सख़्त चेहरे वाला एक वर्दीधारी सिक्योरिटी गार्ड खड़ा था । पहली बार इस दुकान से निकलते समय इसे नहीं देखा था । हमारे हाथ में थमे पैकेटो का जादू था ये शायद । वर्दीधारी गार्ड ने हाथ आगे बढ़ाया । मैंने ग़ौर से उसका गंभीर चेहरा देखा । उसके चेहरे पर रत्ती भर भी मुस्कान नहीं थी । 

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----  राकेश कुमार त्रिपाठी

2 comments:

Surya Kant Tiwari said...

राकेश कुमार त्रिपाठी की लेखन शैली के हम वर्षों से कायल है। स्क्रिप्ट, गीत, कविता और आये दिनों साम्प्रतिक विषयों पर उनका लेख अक्सर पढ़ने को मिलता रहता है। लेकिन आज मुझें पहली बार उनकी कहानी "मुस्कान" पढ़ने को मिली। समय, सामाजिक परिस्थितियों और राजनीतिक उलटफेर के साथ-साथ मानवीय संबंधों में भी परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हैं। "मुस्कान" की प्रारंभिक कुछ पंक्तियाँ ऐसी लगी जैसे मैं सआदत हसन मंटो की कहानी "आँखें" में खोये जा रहा हूँ। लेकिन कहानी जैसे आगे बढ़ती है....मेरी धारणा ग़लत साबित होती है। कुल मिलाकर हम यही कह सकते है- मुस्कान हमारी ज़िदगी के क़रीब हैं। आये दिनों हम इन स्थितियों से रूबरू होते रहते है। लेखक को एक अच्छी कहानी देने के लिए साधुवाद एवं मंगलकामनाएँ।

Unknown said...

मुस्कान का यांत्रिक हो जाना वर्तमान समय की सम्भवतः सबसे दुखदायी पीड़ा है ! सधे शब्दों में बयान की गई यह साधारण सी कहानी हम सबकी कहानी है जिससे हमारा कभी ना कभी तो साबका पड़ता ही है. काश बदलते रिश्तों, बदलते मूल्यों बदलते परिवेश के दौर में कुछ चीजें कभी ना बदल पाती तो अच्छा होता. संवेदनाओं से जुड़े कई अहम सवाल उठाती है यह कहानी और जमा होती जाती है जेहन में कथा के अंत तक. मुस्कान भी बिक जाती है कई हजार रुपयों की खरीदारी के साथ. बिकती है हर रोज़ गलियों में, दुकानों में, सड़कों पर,शॉपिंग मॉल मे, चौराहे पर. मानवीय सम्बन्धों का बाजारु शोषण होता है हमारी आँखों के सामने हर रोज़ और तमाशाई है वक्त... बेबस, लाचार.

समय की नब्ज़ टटोलती एक सार्थक कहानी के लिए त्रिपाठी जी कॊ अनेकानेक शुभकामनायें.