मैंने
कभी तुम्हें कोई प्रेमपत्र नहीं लिखा |
जितना था - प्रेम...
वो पन्नों पर कहाँ अंकित हो पाता !
वो तो मेरे उस पत्र में भी
नहीं उभर पाया था,
जिसमें मैंने लिखा था कि मैं तुम्हारा हमसफ़र
न भी बन पाऊँ तो ग़म नहीं,
मैं बनना चाहूँगा तुम्हारा ... हमदर्द
कि सफ़र की पीड़ा से तड़प कर कभी
रुकना पड़े तुम्हें ..... तो मैं रहूँ |
सफ़र में ही नहीं, पड़ावों में भी |
फिर भी तुम्हें साथ चलना गवारा था |
मैंने लिखा था ,
भले तोड़ देना ये प्रेम की डोर,
पर कभी न तोड़ना मेरा विश्वास
क्योंकि विश्वास की ज़मीन से लगा रहे तो
प्रेम का अंकुर फूट ही सकता है |
मैंने चाहा था वो भरोसा कि तुम संग रहोगे
स्वर्ग - धरती - पाताल में
क्षण की क्षणिकाओं से बने त्रिकाल में
हमारे जवाब में, दुनिया के सवाल में |
पर एक दिन अचानक तुम निरुत्तर हो गए
प्रेम को तो अभी और पनपना था !
इसे कहाँ किसी सीमा में रहना था !
मैंने तो तुमसे छिपाकर प्रेम की गागरी में
नीचे एक छोटा सा सूराख बना दिया था
कि तुम अनजाने ही उँड़ेलते रहो, देखते रहो
और गागर कभी न भरे
पर उसे ये गरूर रहे कि धार बनी हुई है
और वो धार जब रुक जाए
तो उस विश्वास का मैं क्या करूँ....
जिसे न तोड़ने को लिखा था मैंने एक ख़त में
..........................................
कम से कम इतना तो बता कर जाते
या कि कोई और तरीक़ा है तुम्हारे पास
ये बताने के लिए कि मेरा वो ख़त...
मेरा वो ख़त कहाँ रखा है तुमने ?
तुम्हारी संदूकची में, सुपारी की डिबिया में
दवाइयों वाले दराज में, अलमारी के लॉकर में
या ... चश्मे के बॉक्स में ......
कहाँ रखा है वो ख़त तुमने ?
इससे पहले कि ये पूछने मैं आ जाऊँ तुम्हारे पास
कैसे भी हो ... बता देना मुझे
कहाँ रखा है वो ख़त तुमने ?
बच्चों की आँखें व्याकुल लोलुपता से देखती हैं,
समझना चाहती हैं कि वसीयत के पन्ने
कौन सा सन्देश लेकर आयेंगे उनके पास !
वो ख़त मिल जाता तो उस वसीयत के आख़िर में
उसे एक पिन से टाँक देता.....
जिसमें मैंने लिखा था....
भले तोड़ देना ये प्रेम की डोर,
पर कभी न तोड़ना मेरा विश्वास
क्योंकि विश्वास की ज़मीन से लगा रहे तो
प्रेम का अंकुर फूट ही सकता है |
जितना था - प्रेम...
वो पन्नों पर कहाँ अंकित हो पाता !
वो तो मेरे उस पत्र में भी
नहीं उभर पाया था,
जिसमें मैंने लिखा था कि मैं तुम्हारा हमसफ़र
न भी बन पाऊँ तो ग़म नहीं,
मैं बनना चाहूँगा तुम्हारा ... हमदर्द
कि सफ़र की पीड़ा से तड़प कर कभी
रुकना पड़े तुम्हें ..... तो मैं रहूँ |
सफ़र में ही नहीं, पड़ावों में भी |
फिर भी तुम्हें साथ चलना गवारा था |
मैंने लिखा था ,
भले तोड़ देना ये प्रेम की डोर,
पर कभी न तोड़ना मेरा विश्वास
क्योंकि विश्वास की ज़मीन से लगा रहे तो
प्रेम का अंकुर फूट ही सकता है |
मैंने चाहा था वो भरोसा कि तुम संग रहोगे
स्वर्ग - धरती - पाताल में
क्षण की क्षणिकाओं से बने त्रिकाल में
हमारे जवाब में, दुनिया के सवाल में |
पर एक दिन अचानक तुम निरुत्तर हो गए
प्रेम को तो अभी और पनपना था !
इसे कहाँ किसी सीमा में रहना था !
मैंने तो तुमसे छिपाकर प्रेम की गागरी में
नीचे एक छोटा सा सूराख बना दिया था
कि तुम अनजाने ही उँड़ेलते रहो, देखते रहो
और गागर कभी न भरे
पर उसे ये गरूर रहे कि धार बनी हुई है
और वो धार जब रुक जाए
तो उस विश्वास का मैं क्या करूँ....
जिसे न तोड़ने को लिखा था मैंने एक ख़त में
..........................................
कम से कम इतना तो बता कर जाते
या कि कोई और तरीक़ा है तुम्हारे पास
ये बताने के लिए कि मेरा वो ख़त...
मेरा वो ख़त कहाँ रखा है तुमने ?
तुम्हारी संदूकची में, सुपारी की डिबिया में
दवाइयों वाले दराज में, अलमारी के लॉकर में
या ... चश्मे के बॉक्स में ......
कहाँ रखा है वो ख़त तुमने ?
इससे पहले कि ये पूछने मैं आ जाऊँ तुम्हारे पास
कैसे भी हो ... बता देना मुझे
कहाँ रखा है वो ख़त तुमने ?
बच्चों की आँखें व्याकुल लोलुपता से देखती हैं,
समझना चाहती हैं कि वसीयत के पन्ने
कौन सा सन्देश लेकर आयेंगे उनके पास !
वो ख़त मिल जाता तो उस वसीयत के आख़िर में
उसे एक पिन से टाँक देता.....
जिसमें मैंने लिखा था....
भले तोड़ देना ये प्रेम की डोर,
पर कभी न तोड़ना मेरा विश्वास
क्योंकि विश्वास की ज़मीन से लगा रहे तो
प्रेम का अंकुर फूट ही सकता है |
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