न तुम्हारी, न मेरी
इस बार दोनों की ’ईद मुबारक़’ नहीं होगी !
मेरे पास वाले मकान में
आयी है उस शहीद की मृत देह
’गोलियों से छलनी’
जिसने आख़िरी बार साँस ली थी
सरहद पर ।
और तुम ?
क्या तुम्हें इस बार चाँद देखते वक़्त
अपनी बंदूक याद नहीं आयेगी !
जिसने आग उगली थी
तुम जैसी ही वर्दी पहने
मेरे पास वाले मकान के
उस सैनिक पर !!
उस बंदूक के साथ तुम
और इस निर्जीव देह के साथ मैं
कैसे कहेंगे
’ईद मुबारक़’ हो मेरे भाई !
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