मैंने क़िताबें ख़रीदीं थीं,
कुछ दोस्तों के यहाँ से चुराई थीं,
कुछ लाईब्रेरी को लौटाई ही नहीं,
पर मेरे घर आकर देखना
उन्हें कैसे सहेज कर
नैप्थलीन की गोलियों के बीच
करीने से सजा कर
आलमारी में
या पुराने बक्सों में रखा है |
उनमें से तो कईयों के कितने पन्ने
दीमक फिर भी चाट गए,
कुछ तो अब लगता है
यूँ ही ख़रीद लाया था,
बेकार ही, बिना काम के !
या बाद में उनकी
'उपयोगिता' नहीं रही |
पर वो भी कहीं हैं
घर में ही कहीं !
जैसे कि वो पहली मैगज़ीन,
छपी थी जब मैं चौदह का था
जिसमें छपी थी स्मिता पाटिल की
वो .... तस्वीर
आज भी वो फटा हुआ पेज है
'वीर बालकों की गाथाएँ' के बीच |
या फिर
जिस छोटे से पुर्ज़े पर
लिखा था उसका फोन नंबर,
वो भी शायद प्रेमचंद की रंगभूमि में
छिपी हुई है |
और फिर बालकनी की वो दो टिकटें
जिनको ख़रीद कर पता नहीं
कौन सी फ़िल्म देखी थी......
उस दिन फिर दिख गयी
किष्किन्धा काण्ड में |
और भी न जाने कितने
कितने
टुकड़े
पन्ने
बंडल
कॉपियाँ
............ वगैरह
दिख जाती हैं,
जब वो पड़ी होती हैं
मेरे, रद्दीवाले और
अख़बारों के ढेर के आस-पास |
पर रद्दीवाला सिर्फ़ अख़बार से भरा थैला लिए
हाँक लगाता निकल पड़ता है
अगली गली की ओर |
मैं ख़रीदता हूँ कुछ और
नेप्थलीन की गोलियाँ |
और 'बिग बाज़ार' के सामने
खड़े होकर सोचता हूँ,
चारों तरफ 'रद्दीवाले' कितने खुश हैं
उनके 'थैलों' में भरे 'रिश्ते',
जिनकी अब 'उपयोगिता'
नहीं बची थी,
'विक्रेताओं' के पास |
क्या रिश्ते भी नहीं रह सकते
पुरानी 'अलमारी' में
'बक्सों' में ?
क्या उनके लिए बिकती हैं
किसी दुकान में
गोलियाँ
'नेप्थलीन' की ?
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जुलाई, 2011
राकेश कुमार त्रिपाठी
राकेश कुमार त्रिपाठी
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