अच्छा लगता है !
बहुत ही अच्छा लगता है !
हालाँकि मैं जानता हूँ
ये मेरी ख़ुशफ़हमी भी हो सकती है |
ये मेरी बेवकूफ़ी भी हो सकती है |
पर मुझे अच्छा लगता है,
जब मुझे एहसास होता है
कि उतनी भीड़ में भी
तुम्हारी आँखों ने मुझे ही देखा था |
तुमने मेरी तरफ ही अपना हाथ हिलाया था |
तुम्हारा एक एक शब्द जैसे मेरे लिए ही था |
तुम्हारी मुस्कराहट के न जाने
कितने नए अर्थ तलाशे थे मैंने |
तुम्हारे वादों पर सदियों तक
इंतज़ार करते रहना क़बूल था मुझे |
बस, इतना एहसास होना ही काफी था
कि तुम्हारा वजूद है मुझसे ही |
वैसे तो घर पहुँच कर
सर से पाँव तक घेर लेता है
फिर वही एकाकीपन
वही उदासी
वही हताशा
कभी कभी निराशा
अपने आप से
मेरे तुम्हारे संबंधों से |
लगता है जैसे मैं तुम्हें जानता भी नहीं
तुम एक छलावे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं
इंतज़ार की वो घड़ियाँ
तुम्हारे वादों की गूँज से भी
लम्बी होती जाती है |
मगर, अच्छा लगता है
बहुत अच्छा लगता है
जब तुम मुझसे मुख़ातिब होते हो
लाल क़िले की प्राचीर से |
हालाँकि मैं जानता हूँ
ये मेरी ख़ुशफ़हमी भी हो सकती है |
ये मेरी बेवकूफ़ी भी हो सकती है |
पर मुझे अच्छा लगता है,
जब मुझे एहसास होता है
कि उतनी भीड़ में भी
तुम्हारी आँखों ने मुझे ही देखा था |
तुमने मेरी तरफ ही अपना हाथ हिलाया था |
तुम्हारा एक एक शब्द जैसे मेरे लिए ही था |
तुम्हारी मुस्कराहट के न जाने
कितने नए अर्थ तलाशे थे मैंने |
तुम्हारे वादों पर सदियों तक
इंतज़ार करते रहना क़बूल था मुझे |
बस, इतना एहसास होना ही काफी था
कि तुम्हारा वजूद है मुझसे ही |
वैसे तो घर पहुँच कर
सर से पाँव तक घेर लेता है
फिर वही एकाकीपन
वही उदासी
वही हताशा
कभी कभी निराशा
अपने आप से
मेरे तुम्हारे संबंधों से |
लगता है जैसे मैं तुम्हें जानता भी नहीं
तुम एक छलावे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं
इंतज़ार की वो घड़ियाँ
तुम्हारे वादों की गूँज से भी
लम्बी होती जाती है |
मगर, अच्छा लगता है
बहुत अच्छा लगता है
जब तुम मुझसे मुख़ातिब होते हो
लाल क़िले की प्राचीर से |
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जुलाई, 2011
राकेश कुमार त्रिपाठी
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