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नहीं समझे तो रसिकता है

संबंधों का जो पराठा
दिखावे के तेल में
स्वार्थ के तवे पर सिंकता है,
चमक भरे बाज़ार में
ऊँचे भावों पर आजकल
वही ज़्यादा बिकता है |

ग़ौर से देखो - जलन की कील,
ईर्ष्या के मुँहासों से
भरा चेहरा कहाँ दिखता है !
ऊपर तो परत दर परत
मेकअप की तरह चुपड़ी हुई
असाधारण आन्तरिकता है |

ज़माना नहीं बदलेगा उसके लिये,
जो की-बोर्ड पर रोमन अक्षरों में
औरों की तरह हिंदी नहीं लिखता है |
वो घिस चुके मुहावरे की तरह
आज भी रातों को कलम
और दिन को चप्पलें घिसता है |

वो जो आये मिलने आपसे
मुस्कुराये, इठलाये, शक्कर सा बतियाये
ये तो बस औपचारिकता है |
बिना काम, बिना दाम, वरना
तीसरे पन्ने की महफ़िल में
कौन दो घड़ी भी टिकता है !

पीटकर दम्भी हो जाने वाला
हर शूरवीर कभी न कभी
भविष्य के हाथों पिटता है |
मैंने तो जो कहना था कह दिया,
आप समझे तो गाली,
नहीं समझे तो रसिकता है |


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                                              जुलाई, 2011
                                     राकेश कुमार त्रिपाठी



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