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कोरा कागज़

बहुत सालों पहले
पाया था मैंने, 
एक काग़ज़ सफ़ेद |
सोचा था - बनाऊँगा तुम्हारी तस्वीर |
पर, न जाने क्या हुआ !
ड्रॉइंग - बोर्ड पर,
चारों किनारे कागज़ के
अटका कर पिन से
छोड़ दिया .............
न जाने क्यों, कैसे, भूल गया !!
आज देखता हूँ -
वो काग़ज़ मिला है
धब्बे हैं जगह - जगह
धूल मिट्टी के दाग़ भी |
आज ..... सोचता हूँ, 
काश ! फिर से एक बार,
बस्स, एक बार,
मिल जाता मुझे एक काग़ज़
--------------------------- कोरा !
बिल्कुल कोरा ........... काश !!

जनवरी, 1994
राकेश कुमार त्रिपाठी




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