तब थी जेब में अट्ठनी और दिल में सुकून,
आज घेर लेता है म्युचुअल फंड और बैंक बैलेंस का जुनून |
सिस्टम ने सबको कितनी बेरहमी से मारा,
किसीको वो अट्ठनी मिले तो लौटा देना यारा ||
कागज़ की नाव तैरती तो लगता जीत ली दुनिया,
मुट्ठी भर बताशों में मिलती थी दो जहान की खुशियाँ |
आज प्लेन में बैठा, बर्गर खाया, फिर खट्टा डकारा,
किसीको वो अट्ठनी मिले तो लौटा देना यारा ||
लुभाती थी ब्लैकबोर्ड पर चॉक की खरखराहट,
पहला फाउन्टेन पेन, और ऊँगलियों की घबराहट |
अब की-बोर्ड, माऊस, गूगल ट्रांसलिटरेट का सहारा,
किसीको वो अट्ठनी मिले तो लौटा देना यारा ||
क्या ख़ूब फिल्म थी, देखी थी क्लास से भागकर,
या गुडबॉय बना और माँ-बाबूजी से पैसे माँगकर |
हज़ारों चैनल, यू ट्यूब, हाय मल्टीप्लेक्स पाँच सितारा !
किसीको वो अट्ठनी मिले तो लौटा देना यारा ||
कम होती जा रही है रोज़ आसमानों की हाईट,
छत की मुंडेर से दीखते हैं टावर, सैटेलाईट |
कभी अंतरीक्ष और मेरे बीच माध्यम था मेरा गैस का ग़ुब्बारा,
किसीको वो अट्ठनी मिले तो लौटा देना यारा ||
क्या होगा अट्ठनी में, मेरे कुछ दोस्त कहते हैं,
मुझे तो वो एक के पीछे एक चलते भेड़ लगते हैं |
चूहों की दौड़ में क्या पता, कौन जीता, कौन हारा ?
क्या पता जग बेचारा, या मैं ..... नाकारा !!
पुनश्च : अब तो सुना है,
कुछ दिनों में,
रिज़र्व बैंक वाले भी अट्ठनी बनाना बंद कर देंगे |
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मई, 2011
राकेश कुमार त्रिपाठी
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