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ग्लोबलाईज़ेशन


हे मुर्गो
हे मेरे घर के मुर्गो
हे मेरे देश के मुर्गो
हमें मुआफ़ कर देना
हमने तुम्हें दाल बराबर समझा |
क़दम - क़दम पर 
तुम्हारी तौहीन की |
खाने को 
जैसा - तैसा दाना दिया,
रहने को
जैसा - तैसा दड़बा दिया |
तुम्हें काटते - पकाते वक़्त भी 
कुछ ख़ास ख़याल न रखा |
बस, पका लिया, खा लिया |
पर अब,
ज़माना बदला है,
हमारे यहाँ इंसानों के दिन अच्छे हुए
तो तुम क्यों बाक़ी रहोगे ?
तुम्हारे दिन भी बहुरेंगे !
अब तुम्हें सिर्फ
मुर्गा नहीं समझा जाएगा,
तुम्हारी तौहीन नहीं होगी |
तुम्हारे रहने को
सजा - धजा 
फ़ार्म हाऊस बनेगा !
खाने को पेटेंट किये हुए 
इम्पोर्टेड मकई के दाने !
तुम और मोटे हो सकोगे,
तुम्हारी खाल भी चिकनी होगी,
जिसे बड़े जतन से उतारा जाएगा |
ताकि गोश्त और ज़्यादा मिले,
और मुनाफ़ा भी |
तुम्हें पकाया और खाया भी
एयर कंडीशंड रेस्तराओं में जाएगा
और तुम एक ख़ास नाम से 
पहचाने जाओगे,
सिर्फ मुर्गे की पहचान से 
ऊपर उठ जाओगे |
इसलिए हे मुर्गो !
धन्यवाद दो उनका,
जो तुम्हारे और 
तुम्हारे देश के कर्णधार हैं |
जो मुर्गों के सर पर 
कलगी की जगह
डॉलर लगा हुआ देखते हैं |

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1996
राकेश कुमार त्रिपाठी




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