कल्पना की मैंने
एक ऊँचे पहाड़ के नीचे
खड़े होकर,
ऊपर से ये दुनिया
दिखती होगी कैसी !!
रोमांच हो आया,
बौने पेड़ !
बौने घर !
घरों में सिमटे
बौने लोग ! हा !
अकस्मात् ......
बौनों की उस भीड़ में
नज़र आया
एक चेहरा मेरा भी |
बौना ! एकदम छोटा !
छि : !
कैसी कल्पना है !
नहीं, नहीं, !!
मैं ठीक हूँ ज़मीन पर ही,
ऊँचे पहाड़ों पे चढ़कर
नज़रों में खुद की
बौना होना नहीं चाहता |
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नवम्बर, 1994
राकेश कुमार त्रिपाठी
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