सालों पहले
घर लौटते वक़्त
मैं देखता
कैसे मेरी परछाईं
पैरों से मेरे निकल कर
सामने लम्बी हो जाती
और एकदम से, अचानक
पीछे चली जाती !
और ये क्रम चलता रहता
जब तक घर की चौखट
नज़र न आ जाती |
दिन भर की थकन से
बोझिल मेरी आँखें देखती
घर की चौखट के बीच
दो आँखें -
शांत, निश्छल, ममतामयी -
माँ की आँखें ऐसी ही होती हैं न !
सालों बाद ........
वही परछाईं,
वही थकन,
वही घर की चौखट और
वैसी ही दो आँखें .....
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शायद भूल गया कहना,
पत्नी मेरी घर में अकेली
दिन भर मेरा इंतज़ार करती है,
और मैं सोचता हूँ -
कब तक ?
एक जोड़ी आँखें
घर की चौखट के भीतर
रहेंगी क़ैद ?
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सितम्बर, 1994
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