बड़ा अजीब सा होता है
सफ़र !
एक शहर से दूसरे शहर !
बीच का वीराना,
गाँव, देहात
पार करती है रेल |
बड़ा अजीब सा होता है
मेरा और मेरे मन का,
साथ - साथ जाना,
कहीं से कहीं तक |
रेल रौंदती जाती है -
खेत, खलिहान,
पहाड़, चट्टान !
खिड़की पे बैठे देखता हूँ - सब |
अटकता है मेरा मन,
कभी झाड़ियों में,
कभी खुले मैदान में,
किसी जंगल के सुनसान में |
रेल आगे दौडती है, और
मन मेरा,
मेरे साथ आने की कोशिश में -
गिरते - पड़ते,
अटकते - छूटते,
ठोकरें खाते
जब पहुँचता है,
साथ मेरे, मंज़िल पर,
लहुलुहान हो चुका होता है |
मेरे अपने शहर की
हवा, मिट्टी, पानी,
भीड़, बसें, लोग
उस ज़ख्म को भरने की
नाकाम कोशिशें
करते रहते हैं |
कई - कई महीनों,
सालों तक |
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जनवरी, 1995
राकेश कुमार त्रिपाठी
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