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आदमी बनाम आदमी

भीड़ के बीच जब मैंने कहा 
 'सब समान हैं' 
एक आवाज़ आई कहीं से - 
'क्या तू सोशलिस्ट है ?'
 दूसरी भीड़ से कहा मैंने - 
'वो मजदूरों का ख़ून पीते हैं' 
भीड़ फुसफुसाई - 
'ओह! तो कैपिटलिज़्म के विरोधी हो ?
'तीसरी बार जब भीड़ पीट रही थी 
किसी निस्सहाय को, 
मैंने कहा -'मत मारो' 
भीड़ चीखी - 
'गाँधीवाद का ज़माना गया बच्चू !
'गली के मोड़ पर 
खेलते - झगड़ते बच्चों में  
जब दोस्ती करा दी, पता चला 
एक हिन्दू है, एक मुस्लिम | 
दोनों के अनगिनत शुभचिंतक चेहरों ने 
घेर लिया मुझे और चिल्लाने लगे - 
'सेक्यूलरिज़्म मत बघार बे, 
हमें फैसला करने दो' 
और निकल आये न जाने कहाँ से 
भाले - बल्लम, चाकू - बंदूकें ! 
मैं तब ज़ोर से चीखा -'मत बाँधो मुझे किसी  
इज़्म - वाद के चक्कर में, 
 मैं आदमी हूँ, 
आदमी ही रहने दो 
और इससे, उससे, सबसे  
प्यार करने दो |' 
सबने कहा - 
'ये तो पागल है !' 
और तभी कोई संगीन
 खच्च सेमेरी पीठ में धँस गयी |  
सामने सीने पर बस उसकी नोक देखी, और 
मेरी आवाज़ अधूरी सी,
 मेरे गले में फँस गयी | 
मरने के बाद जाना, 
सिर्फ आदमी बनकर रहना कितना सख़्त है ! 
आदमी को जीने के लिए  
कुछ बैसाखियों की ज़रुरत होती है |  


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अक्टूबर, 1996
राकेश कुमार त्रिपाठी 




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