भीड़ के बीच जब मैंने कहा
'सब समान हैं'
एक आवाज़ आई कहीं से -
'क्या तू सोशलिस्ट है ?'
दूसरी भीड़ से कहा मैंने -
'वो मजदूरों का ख़ून पीते हैं'
भीड़ फुसफुसाई -
'ओह! तो कैपिटलिज़्म के विरोधी हो ?
'तीसरी बार जब भीड़ पीट रही थी
किसी निस्सहाय को,
मैंने कहा -'मत मारो'
भीड़ चीखी -
'गाँधीवाद का ज़माना गया बच्चू !
'गली के मोड़ पर
खेलते - झगड़ते बच्चों में
जब दोस्ती करा दी, पता चला
एक हिन्दू है, एक मुस्लिम |
दोनों के अनगिनत शुभचिंतक चेहरों ने
घेर लिया मुझे और चिल्लाने लगे -
'सेक्यूलरिज़्म मत बघार बे,
हमें फैसला करने दो'
और निकल आये न जाने कहाँ से
भाले - बल्लम, चाकू - बंदूकें !
मैं तब ज़ोर से चीखा -'मत बाँधो मुझे किसी
इज़्म - वाद के चक्कर में,
मैं आदमी हूँ,
आदमी ही रहने दो
और इससे, उससे, सबसे
प्यार करने दो |'
सबने कहा -
'ये तो पागल है !'
और तभी कोई संगीन
खच्च सेमेरी पीठ में धँस गयी |
सामने सीने पर बस उसकी नोक देखी, और
मेरी आवाज़ अधूरी सी,
मेरे गले में फँस गयी |
मरने के बाद जाना,
सिर्फ आदमी बनकर रहना कितना सख़्त है !
आदमी को जीने के लिए
कुछ बैसाखियों की ज़रुरत होती है |
'सब समान हैं'
एक आवाज़ आई कहीं से -
'क्या तू सोशलिस्ट है ?'
दूसरी भीड़ से कहा मैंने -
'वो मजदूरों का ख़ून पीते हैं'
भीड़ फुसफुसाई -
'ओह! तो कैपिटलिज़्म के विरोधी हो ?
'तीसरी बार जब भीड़ पीट रही थी
किसी निस्सहाय को,
मैंने कहा -'मत मारो'
भीड़ चीखी -
'गाँधीवाद का ज़माना गया बच्चू !
'गली के मोड़ पर
खेलते - झगड़ते बच्चों में
जब दोस्ती करा दी, पता चला
एक हिन्दू है, एक मुस्लिम |
दोनों के अनगिनत शुभचिंतक चेहरों ने
घेर लिया मुझे और चिल्लाने लगे -
'सेक्यूलरिज़्म मत बघार बे,
हमें फैसला करने दो'
और निकल आये न जाने कहाँ से
भाले - बल्लम, चाकू - बंदूकें !
मैं तब ज़ोर से चीखा -'मत बाँधो मुझे किसी
इज़्म - वाद के चक्कर में,
मैं आदमी हूँ,
आदमी ही रहने दो
और इससे, उससे, सबसे
प्यार करने दो |'
सबने कहा -
'ये तो पागल है !'
और तभी कोई संगीन
खच्च सेमेरी पीठ में धँस गयी |
सामने सीने पर बस उसकी नोक देखी, और
मेरी आवाज़ अधूरी सी,
मेरे गले में फँस गयी |
मरने के बाद जाना,
सिर्फ आदमी बनकर रहना कितना सख़्त है !
आदमी को जीने के लिए
कुछ बैसाखियों की ज़रुरत होती है |
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अक्टूबर, 1996
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