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मुक्त बंधन

तुम्हारी ज़ुल्फों में 
खोना - उलझना चाहता हूँ 
पर साथ - साथ एक विनती है, 
जूड़ा कभी न बनाना बालों का,
उसमें तो मैं पूरा का पूरा छिप जाऊँगा |
तुम बनाना....
लम्बी...... सी चोटी 
और मुझे भी गूँथ लेना
बालों के साथ,
ताकि, कुछ छिपा रहूँ 
कुछ दिखता भी रहूँ |
जानता हूँ, 
तुम समझोगे मुझे भी
पुरुष प्रधान समाज का एक प्रेमी
जो अपनी पहचान खोना नहीं चाहता
सिर्फ तुम्हारा होकर रहना नहीं चाहता 
पर, एक बात बताऊँ 
आओ, तुम्हें अपना राज़दार बनाऊँ |
जूड़ा, अगर अचानक खुल जाएगा
अन्दर का सब कुछ बिखर जाएगा |
मगर, चोटी खुलती है.....
धीरे - धीरे... 
हौले - हौले ...
एक के बाद 
दूसरी लड़ी |

*******************
अप्रैल, 1992
राकेश कुमार त्रिपाठी 




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